इंटरनेट की ज़रूरत आज वैसी ही है, जैसी बिजली की है. कहने को तो तीन-चौथाई से ज़्यादा आबादी तक बिजली और मोबाइल की पहुंच हो गयी है. लेकिन बमुश्किल 10-12 फ़ीसदी लोग ही इतने खुशकिस्मत हैं कि उन्हें 24 घंटे बिजली मिल पाती है. उधर, स्मार्टफोन के प्रसार ने क़रीब 20 फ़ीसदी आबादी तक इंटरनेट पहुँचा दिया है. इंटरनेट के विस्तार से टेलीकॉम कंपनियों की पौ-बारह है. फिर भी उन्होंने डाटा का दाम तय करने के लिए टेढ़ा-मेढ़ा तरीक़ा अपना रखा है. मोबाइल पर बात करना जहाँ दुनिया में सबसे सस्ता भारत में है, वहीं इंटरनेट डाटा के लिहाज़ से भारत दुनिया के सबसे महँगे देशों में से है, क्योंकि संचार मंत्रालय और TRAI के साथ साँठ-गाँठ करके टेलीकॉम कंपनियाँ जनता की जेब कतर रही हैं. जबकि TRAI (टेलीकॉम रेगुलेटरी अथारिटी ऑफ़ इंडिया) का मुख्य काम ही टेलीकॉम सेक्टर में सुधार (Reforms) लाना है.
इंटरनेट डाटा की ख़पत को किलो (KB), मेगाबाइट (MB), गेगाबाइट (GB) और टेराबाइट (TB) बाइट्स के रूप में मापा जाता है. टेलीकॉम कंपनियाँ अपने डाटा प्लान ऐसे तैयार करती हैं जिसमें ग्राहकों के हितों की कोई बात नहीं होती. डाटा का ज़्यादा ख़पत करने वाले अमीरों को ये कौड़ियों के भाव बेचा जाता है तो कम ख़पत करने वाले ग़रीबों से ज़्यादा भाव लिया जाता है. पाँच-दस गुना से लेकर सौ और हज़ार गुना ज़्यादा! ताज़्ज़ुब की बात ये है कि ये लूट-खसोट दिन-दहाड़े और डंके की चोट पर होती है. क्या अज़ीब बात है कि टेलीकॉम कंपनियाँ मोबाइल और लैंडलाइन से की जानी कॉल्स का पैसा तो ख़पत यानी पल्स रेट के मुताबिक जोड़ती हैं. लेकिन डाटा को टोकरी में भरकर बेचती हैं.
डाटा एक ही है. टोकरियाँ अलग-अलग. डाटा प्लान ही टोकरियाँ हैं. हरेक टोकरी पर लदे डाटा का भाव अलग है. इसे यूँ समझिए कि सौ रुपये वाली टोकरी पर 100 ग्राम डाटा है तो दो सौ रुपये वाली पर 250 ग्राम डाटा और पाँच सौ रुपये वाली पर एक किलो. टोकरियाँ विशालकाय भी हैं. हज़ार, दो हज़ार, पाँच हज़ार, दस हज़ार रुपये की टोकरियों पर वही डाटा मिट्टी के भाव हो जाता है. डाटा का मोल लगाने का ये बेहद भ्रष्ट तरीक़ा है. दूसरी गड़बड़ी इंटरनेट की स्पीड के नाम पर होती है. अगर आपने सौ रुपये वाली टोकरी चुनी है तो 100 ग्राम डाटा की ख़पत होने तक आपका इंटरनेट यदि 10 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से दौड़ेगा तो इसके ख़त्म होते ही रफ़्तार 100 मीटर प्रति घंटा हो जाएगी. ये तरकीब अनलिमिटेड प्लान की है. दिखावे के लिए ऐसे डाटा प्लान भी हैं जो ख़पत के मुताबिक़ दाम वसूलेंगे. लेकिन ये बहुत महँगे हैं. इन्हें कोई नहीं ख़रीदता.
डाटा प्लान के लिहाज़ से टेलीकॉम कम्पनियाँ एक और गन्दा खेल खेलती हैं. मान लीजिए कि आपने पाँच सौ रुपये वाली डाटा टोकरी को चुना. इसके लिए आपको जो एक किलो डाटा मिलेगा उसे आपको महीने भर में ख़त्म कर लेना है. लेकिन अगर किसी वजह से आपने 800 ग्राम डाटा का ही इस्तेमाल किया तो बाक़ी 200 ग्राम अपने आप ख़त्म हो जाएगा. मानो, डाटा नहीं सब्जी है कि तय समय में इस्तेमाल नहीं हुई तो सड़ जाएगी! टेलीकॉम कम्पनियाँ अपने ग्राहकों से ये अपेक्षा तो करती हैं कि टोकरी में भरा डाटा खप जाने के बाद टॉप-अप प्लान के तहत ग्राहक और डाटा ख़रीदें. तब ‘हायर स्पीड’ का मज़ा लें. लेकिन ऐसी हालत में भी महीना ख़त्म होने तक आपका जो डाटा बच जाएगा, वो सड़ जाएगा. उसे अगले महीने के खाते में ‘कैरी-फारवर्ड’ नहीं किया जाएगा. यानी, यदि आप अपने घर के लिए हर महीने पाँच किलो चावल ख़रीदते हैं तो पाँच किलो वाली टोकरी ले लीजिए. किसी वजह से मेहमान बढ़ जाएँ, ख़पत ज़्यादा हो जाए तो ‘टॉप-अप प्लान’ के तहत किलो-दो किलो चावल और ख़रीदा जा सकता है. लेकिन अगर महीना ख़त्म होने तक आधा किलो चावल बच गया तो वो अपने आप सड़ जाएगा. किसी दवा के ‘एक्सपायर’ होने की तरह.
साफ़ है कि डाटा प्लान ने नाम पर ग्राहकों को उल्लू बनाया जा रहा है. ये काम सरकारी और निजी क्षेत्र दोनों तरह की टेलीकॉम कम्पनियाँ एक ही तरह से करती हैं. इसे Cartelization कहते हैं. TRAI को सब पता है. लेकिन वो अनजान बना बैठा है. प्रतिस्पर्धा आयोग (Competition Commission) का भी यही हाल है. दरअसल, किसी उत्पाद का दाम तय करने का दो तरीक़ा होता है. पहला – वस्तु की लागत के हिसाब से और दूसरा – जिस भाव माल बिक जाए वो. इंटरनेट का डाटा एक तरह से मुफ़्त है. इसे सिर्फ़ ग्राहकों तक पहुँचाने का ख़र्चा आता है. इसी के लिए टेलीकॉम कम्पनियाँ भारी निवेश करती हैं. लेकिन वो डाटा का दाम लागत विधि के मुताबिक़ नहीं, बल्कि बाज़ार से क्या भाव चूसा जा सकता है, इसके मुताबिक़ तय करती हैं. ताकि ज़्यादा से ज़्यादा कमा सकें. देश में स्मार्टफोन की अति-शानदार वृद्धि दर (क़रीब 30%) और डाटा सेगमेंट से होने वाली कमाई की अतिशय-शानदार वृद्धि दर (क़रीब 40%) ने टेलीकॉम कम्पनियों में बैठे दिग्गज़ों के होश फ़ाख़्ता कर रखे हैं. उन्हें लगता है कि जब बेहद महँगा होने के बावजूद उनका सामान (डाटा) धड़ल्ले से बिक रहा है तो दाम कम क्यों करें?
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सर्विस सेक्टर में अलग-अलग चीज़ों का दाम तय करने का तरीक़ा अलग है. जैसे रेल और हवाई किराया ‘टेलीस्कोपिक मैथड’ से तय किया जाता है. इसमें जैसे-जैसे सफ़र की दूरी बढ़ती है, वैसे-वैसे प्रति किलोमीटर भाव कम होता जाता है. लेकिन यही नियम बस, टैक्सी या ऑटो वग़ैरह के लिए नहीं होता. दूसरी तरफ, बिजली-पानी जैसी बेहद अनिवार्य वस्तुओं का भाव ख़पत बढ़ने साथ-साथ बढ़ाया जाता है. ताकि ग़रीबों को मुहैया करवाये जाने वाले सस्ते बिजली-पानी की भरपायी हो सके. एक वजह ये भी है कि बिजली-पानी हमारे पास इतना नहीं है कि उसके किफ़ायती इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं हो. इसीलिए इसकी ख़पत को अलग-अलग ‘स्लैब’ में बाँटा जाता है.
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आख़िर इंटरनेट डाटा का भाव तय करने का फ़ार्मूला कैसा हो? इसे बहुत सीधा और सरल होना चाहिए. इंटरनेट सुविधा का मासिक किराया और उसकी स्पीड सबके लिए समान होनी चाहिए. किराये से टेलीकॉम कम्पनियों के पूँजीगत निवेश की भरपायी हो. स्पीड की क्वालिटी के आधार पर कम्पनियाँ प्रतिस्पर्धा करें. लेकिन डाटा का भाव एक होना चाहिए. चाहे ख़पत दस ग्राम की ख़पत हो या दस टन की. ख़पत के मुताबिक़ बिल बनना चाहिए. ग्राहकों की नज़र में जिसकी स्पीड, सर्विस, बिलिंग और इमेज़ (छवि) जितनी अच्छी होगी वो उतना बढ़िया कारबोर करेगी.
डाटा की भारी ख़पत वाले ग्राहकों को टेलीकॉम कम्पनियाँ डिस्काउंट दे सकती हैं. लेकिन डिस्काउंट भी तर्क संगत होना चाहिए. संस्थागत ग्राहकों को प्रोत्साहन देना व्यापार की ज़रूरत है. लेकिन ऐसा न हो कि सौ रुपये का सामान ख़रीदने वाले को पाँच प्रतिशत का डिस्काउंट मिले और दस हज़ार का सामान ख़रीदने वाला 90 फ़ीसदी डिस्काउंट का मज़ा ले. अभी ऐसा ही हो रहा है. महँगे डाटा प्लान का डाटा बेहद सस्ता है. सस्ते डाटा प्लान का डाटा बेहद महँगा. छोटा डाटा प्लान लेने पर कम स्पीड मिलती है. बड़ा डाटा प्लान लेने पर हाई स्पीड मिलती है. हालाँकि, ज़्यादातर मामलों में टेलीकॉम कम्पनियों की पूँजीगत और ढ़ाँचागत व्यवस्था एक जैसी रहती है. नरेन्द्र मोदी की सरकार ने डिज़िटल इंडिया का जो सपना देखा है उसे साकार करने के लिए इंटरनेट डाटा की बिलिंग का अज़ीबोग़रीब फ़ार्मूला नहीं चलेगा. इसे सुधारा जाना चाहिए.
वैसे टेलीकॉम कम्पनियाँ इस वक़्त बेहद बेचैन हैं. उन्हें रिलायंस जियो की प्रस्तावित 4G डाटा सर्विस से ज़बरदस्त चुनौती का ख़तरा दिख रहा है. क्योंकि 4G की तकनीक़ उनके पूरे कारोबार को खा सकती है. इसमें डाटा मौजूदा भाव के मुक़ाबले चौथाई दाम पर मिलने के संकेत हैं. इसकी स्पीड 3G से भी पांच गुना ज़्यादा होगी. इसमें फोन पर बातचीत भी डाटा के तहत ही होगी. यानी उस Voice Calls का खेल ख़त्म, जिससे अभी 85 फ़ीसदी कमाई होती है. दिक़्क़तें सिर्फ़ दो हैं, पहला, देश में कम ही लोगों के पास 4G वाला स्मार्टफोन है और दूसरा, 4G की सफ़लता के लिए उसके टॉवरों के बीच बहुत सघनता होनी चाहिए. एयरटेल ने 4G शुरू भी कर दिया है. अभी 3G के दाम पर ही 4G की स्पीड का स्वाद चखाया जा रहा है. वोडाफोन का 4G दिसम्बर तक आएगा. बाक़ी ऑपरेटर भी तैयारियों में लगे हैं.
सभी ऑपरेटरों के लिए तसल्ली की बात सिर्फ़ इतनी है कि अभी तक का रिकॉर्ड रहा है कि रिलायंस जिस शोर-शराबे के साथ धन्धे में कूदता है वो ज़्यादा दिन तक क़ायम नहीं रहता. उम्दा सर्विस के लिहाज़ से उसकी छवि कभी अच्छी नहीं बनी. लेकिन ये भी सही कि वो खेल के नये नियम तो तय कर ही देता है. देश में एक नयी मोबाइल क्रान्ति दस्तक दे चुकी है. ग्राहकों को इससे फ़ायदा ही होगा.
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